भारतीय क्रिकेट टीम का एक चमकता सितारा ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ हो रहे बॉर्डर गावस्कर ट्रॉफी के बाद इंटरनेशनल क्रिकेट को अलविदा कह देगा। इस नायाब हीरे की चमक अब हमे देखने को नहीं मिलेगा। लेकिन ये हीरा हमेशा चमकता रहे हम यही कामना करेंगे।
मुकेश तिवारी
सौरव चंडीदास गांगुली जी हां एक ऐसा नाम जिसने भारतीय क्रिकेट टीम को अपने दमदार कप्तानी और खेल से क्या कुछ नहीं दिया। आइये गांगुली के कॅरिअर से जुड़े कुछ बेहतरीन लम्हों की याद ताजा करते हैं जिसके लिए दादा हमेशा याद आयेंगे।
वर्ष 1996 - लॉर्ड्स का ऐतिहासिक मैदान सौरव को इंग्लैंड के खिलाफ दूसरे टेस्ट में खेलने का मौका मिला। भारतीय टीम दो जल्दी विकेट गवां के संघर्ष करती नजर आ रही थी। उस समय बल्लेबाजी करने के लिए आए गांगुली के ऊपर काफी दबाव रहा होगा, एक तो उन्हें अपने चयन को साबित करने का, दूसरा टीम को संकट से उबारने का। लेकिन गांगुली ने इस दबाव का बखूबी सामना करते हुए टीम को तो संकट से उबारा ही साथ में अपने पहले ही टेस्ट मैच मे शतक लगा कर अपने लिए ही नहीं बल्कि क्रिकेट प्रशंसको के लिए भी उस दिन को यादगार बना दिया।
वर्ष 1999 वर्ल्ड कप -श्रीलंका के खिलाफ लीग मैच। टॉटन का स्टेडियम दर्शको से खचाखच भरा हुआ था। लंका ने टॉस जीतकर भारत को खेलने के लिए बुलाया। सचिन उस समय मिडिल ऑर्डर में खेल रहे थे लिहाजा ओपनिंग करने के लिए सौरव के साथ आए सदगोपन रमेश चामिंडा वास के शिकार बन चुके थे। शुरूआत मे पिच काफी तेज खेल रही थी। साथ में उछाल भी था। वास, रमेश को ऑउट करने के बाद लय में आने लगे थे। ऐसे में पूरा दारोमदार गांगुली पर आ गया था। वास का पांचवां ओवर था। दो बेहतरीन गेंदो पर गांगुली पूरी तरह बीट हो गए थे। तीसरी गेंद पर एक सनसनाता हुआ कवर ड्राइव। कोई फिल्डर जब तक अपना पैर हिलाता गेंद सीमा रेखा को पार कर चुकी थी। उस एक शॉट ने गांगुली के आत्मविश्वास को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया। और ऑउट होने से पहले दादा 183 रन ठोक चुके थे। वो भी मात्र 158 गेंदो पर। ये सौरव के आत्मविश्वास को दर्शाती एक बेहतरीन पारी थी।
वर्ष 2002- क्रिकेट का मक्का कहे जाने वाले लॉर्ड्स के खूबसूरत मैदान पर इंग्लैंड के खिलाफ नेटवेस्ट ट्रॉफी का फाइनल मैच। धड़कन को थाम देने वाले इस मैच मे गांगुली बल्लेबाजी में कुछ खास नहीं कर पाए थे। खेल आखिरी दो ओवरों मे अपने चरम पर था। मैच किसी के भी पक्ष में जा सकता था। कप्तान गांगुली को मैराथन पारी खेल चुके मोहम्मद कैफ के ऊपर पूरा भरोसा था। लोगों की सासें थम रही थी। उस समय मेरे यहां लाइट नहीं थी, लिहाजा क्रिकेट के उस रोमांस को मैं रेडियो पर जी रहा था। उस समय सोचो गांगुली का क्या हाल रहा होगा। खैर अब जीत के लिए सिर्फ दो रन ही चाहिए थे। मैदान पर कैफ के साथ जहीर खान मौजूद थे। इन दोनों ने जैसे ही दौड़कर दो रन पूरे किए पूरा स्टेडियम झूम उठा। मैं भी रेडियो को हाथ मे ही लेकर उछलते हुए खुशी का इजहार कर रहा था। सब अलग अलग तरीके से भारतीय जीत के इस लम्हे को यादगार बनाने मे लगे हुए थे। हद तो तब हो गई जब लॉर्ड्स के बालकनी में नंगे बदन टी शर्ट को हवा मे लहराते हुए सौरव भारत के इस जीत को कुछ अलग अंदाज में मना रहे थे। गांगुली का यह अंदाज खेल के प्रति उनके जुनून की कहानी बयां कर रहा था।
वर्ष 2003 -ऑस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन मैदान में बॉर्डर गावस्कर ट्रॉफी के लिए भारतीय टीम एक बार फिर ऑस्ट्रेलिया के सामने थी। सौरव को एक अच्छे कप्तान के तौर पर खुद को साबित करने के अलावा अपने आप को शार्टपिच गेंदो पर भी परखना था। उसके पहले शार्टपिच गेंदो को लेके गांगुली की काफी आलोचना हो चुकी थी। एक और नाकामी उनके बेहतरीन कॅरिअर में बदनुमा दाग लगा देती। लेकिन यहां बंगाल टाइगर के इरादे कुछ और ही थे। बाये हाथ के इस खब्बू बल्लेबाज ने जेसन गेलेस्पी और नाथन ब्रेकन को सलीके से खेलते हुए उनके हर चाल को निस्तनाबूत करते हुए बेहतरीन शतक जड़ दिया। ये ब्रिस्बेन मे अपने विश्वास को जीतते सौरव गांगुली थे।
वर्ष 2007- पाकिस्तान के खिलाफ बेंगलूरू में खेला गया तीसरा टेस्ट मैच। गांगुली अपने टेस्ट कॅरिअर में अभी तक एक भी दोहरा शतक नहीं लगा पाए थे। दादा इस सूखे को शायद चिर प्रतिद्वांदी पाकिस्तान के खिलाफ ही खेलकर खत्म करना चाहते थे। हुआ भी वही दादा ने दोहरा शतक लगाकर ड्रा हुए इस टेस्ट मैच को भी हमेशा के लिए जीवंत बना दिया।
ये तो दादा के कॅरिअर से जुड़े कुछ बेहतरीन लम्हे थे। जो हमेशा याद रहेंगे। इसके अलावा दादा ने अपने अक्रामक कप्तानी से भारत को विदेशो में भी लड़ना सिखा दिया। 2003 वर्ल्ड कप में फाइनल तक का सफर तय करना, ऑस्ट्रेलिया में जाकर ऑस्ट्रेलियाई खिलाडि़यों के आंखों मे आंखें डालकर सीरीज को ड्रा कराना, पाकिस्तान को उसके घर में ही जाकर वनडे व टेस्ट में पूरी तरह से धो देना,जैसी कुछ बेहतरीन कामयाबियां दादू के कैरियर में चार चांद लगा देती है।
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